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चिकने घड़े जैसी सरकार

Published On : June 5, 2018

यह कितने दुख की बात है कि देश के किसानों को अपनी मांगे सरकार के कानों तक पहुंचाने के लिए बार-बार सड़क पर उतरना पड़ता है

यह कितने दुख की बात है कि देश के किसानों को अपनी मांगे सरकार के कानों तक पहुंचाने के लिए बार-बार सड़क पर उतरना पड़ता है।

महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, हरियाणा, पंजाब, दिल्ली ऐसे तमाम राज्यों में पिछले साल से लेकर अब तक कई बार किसान आंदोलनरत हुए। तपती धूप में कभी अकेले, तो कभी परिवारवालों के साथ किसान जुलूस निकालते हैं, अपनी मजबूरी दिखाने के लिए दूध-सब्जियों को सड़क पर फेेंकते हैं, कभी अर्द्धनग्न होकर प्रदर्शन करते हैं, लेकिन सरकार मानो चिकना घड़ा है, जिस पर किसी के दुख-दर्द का कोई असर ही नहीं होता। पिछले साल मंदसौर में जो किसान आंदोलन हुआ था, उसे सरकार भले भूल गई हो, लेकिन जनता नहीं भूली कि कैसे आंदोलनरत किसानों पर गोलियां चलाई गईं, जिनमें 6 किसानों की मौत हो गई। इसके बाद भी भाजपा सरकार न जाने किस मुंह से खुद को किसानों का हितैषी बताती है। अभी जब प्रधानमंत्री से लेकर तमाम केन्द्रीय मंत्री भाजपा सरकार के चार सालों की उपलब्धियां का बखान करने में लगे हैं, एक बार फिर किसान अपनी मांगों के साथ सड़क पर हैं। इस बार किसानों ने गांव बंद नाम से 10 दिनों के आंदोलन का छेड़ा है, जिसमें आखिरी दिन भारत बंद होगा। इस आंदोलन का असर शुरुआती 4 दिनों में ही दिखने लगा है, जब कई मंडियों में सब्जियों के न पहुंचने या दूध की आपूर्ति न होने से इनकी कीमतें बढ़ीं, साथ ही उपभोक्ताओं को भी तकलीफ होने लगी। लेकिन सरकार अब भी इस तकलीफ को महसूस नहीं कर रही है, इसलिए बेतुकी बयानबाजियां सामने आ रही हैं।

केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने किसानों के आंदोलन को बेमतलब बताते हुए कहा कि कुछ संगठन किसानों को लेकर ये जो कर रहे हैं, वो सब मीडिया में आने के लिए कर रहे हैं। जबकि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा कि इस हड़ताल का कोई विषय ही नहीं है और ना ही ये कोई मुद्दा है। ये तो एक खामखां की बातें कर रहे, दूध सब्जी ना बेचकर अपना ही नुकसान करेंगे। एक संवेदनहीन सरकार से ऐसे संवेदनहीन बयान की ही उम्मीद की जा सकती है। क्योंकि अगर सरकार किसानों के दुख को समझती तो उसे दूर करने की कोशिश करती।

किसान विजय माल्या या नीरव मोदी नहीं हैं, जो बैंकों के हजारों करोड़ लेकर देश से भाग जाएं। वे लगभग हर फसल के पहले कर्ज लेने पर मजबूर होते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी उपज का सही दाम नहीं मिल पाता और पिछला कर्ज भी बढ़ता जाता है। कर्ज वसूली के लिए बैंक तकादा करने में कोई रहम नहीं दिखाते। ऐसे में कर्ज के बोझ से दबे मुक्ति का एकमात्र रास्ता आत्महत्या ही दिखता है। आंकड़े बताते हैं कि 2013 से अब तक हर साल 12 हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। क्या किसी विकासशील देश के लिए यह आदर्श स्थिति हो सकती है? क्या हम किसानों की लाशों पर नए भारत की इमारत खड़ी करना चाहते हैं?

मोदी सरकार कहती है कि देश को विकास चाहिए और जनता इस भुलावे में आ गई कि विकास से पेट भर जाएगा। किसानों की तकलीफ क्या है, इसे समझने के लिए हम एक दिन बिना खाए-पिए रहें और सोचें कि जीवन भर अगर ऐसी ही फाकाकशी रहे तो कैसा लगेगा? जब हम अनाज उपजाने की मेहनत और संघर्ष को समझेंगे तो शायद किसानों की तकलीफ का कुछ अनुमान लगा सकेेंगे। रहा सवाल किसानों की मांगों का तो वे केवल अपना हक ही चाह रहे हैं। पूरी कर्जमाफी और उपज का लाभकारी मूल्य, इन दो मांगों के कारण ही किसानों को आंदोलनरत होना पड़ा है। और ये कोई नई मांगे नहीं हैं, किसान लंबे समय से इसे सरकार के सामने रखते आए हैं। स्वामीनाथन आयोग ने भी सिफारिश की थी कि किसानों को उपज का डेढ़ गुना मिलना चाहिए। भाजपा ने सत्ता में आते ही इस सिफारिश को लागू करने का वादा किया था। किसानों की आमदनी दोगुनी करने का सपना भी नरेन्द्र मोदी ने दिखाया था। लेकिन चार साल हो गए, न किसानों की मांगें पूरी हुईं, न सरकार के वादे।

इसके बाद किसान आंदोलन करें तो उसे पब्लिसिटी स्टंट बताया जा रहा है। प्रचारप्रिय सरकार हर बात को प्रचार के नजरिए से देखती है। लेकिन माननीय मंत्री और प्रधानमंत्री यह समझ लें कि किसान कोई राजनेता नहीं हैं, जो प्रचार के भूखे होंगे, वे केवल जायज मांगें उठा रहे हैं, जिसे पूरा होना ही चाहिए।

 


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